भारत दुनिया के कुल जैविक उत्पादकों का 30 % का उत्पादन करता है । 2018 में 1.18 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल पर जैविक खेती की जाती थी जो जुलाई 2019 में बढ़कर 3.81 मिलियन हेक्टेयर जो दोगुना से अधिक हो गयी है । इसी के साथ भारत दुनिया में सबसे बड़ा जैविक उत्पादक बन गया है । 2019 में उत्पादकों की संख्या 1.37 मिलियन थी , जो दुनिया में जैविक उत्पादकों की सबसे बड़ी संख्या भी है । मध्य प्रदेश सबसे अधिक जैविक किसानों ( 0.77 मिलियन ) वाला राज्य है , इसके बाद उत्तराखंड , राजस्थान , आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र हैं । भारत जैविक किसानों की संख्या में पहले स्थान पर और जैविक खेती के तहत क्षेत्रफल के मामले में 9 वें स्थान पर है । 2016 में , सिक्किम को 56,000 हेक्टेयर के खेती वाले क्षेत्र के साथ देश का पूरी तरह से जैविक राज्य घोषित किया गया है । और अन्य राज्य त्रिपुरा और उत्तराखंड हैंए जिन्होंने सरकार के अनुसार समान लक्ष्य निर्धारित किए हैं । महाराष्ट्र , उत्तर प्रदेश , राजस्थान और कर्नाटक में देश की सबसे बड़ी प्रमाणित जैविक कृषि भूमि है । भारत ने लगभग 3.50 मिलियन टन ( 2020-21 ) जैविक खाद्य पदार्थों का उत्पादन किया जिसमें गन्ना , कपास , तिलहन , बासमती चावल , अनाज , दालें , मसाले , चाय , फल , सूखे मेवे , सब्जियां , कॉफी जे खाद्य उत्पादों की सभी किस्मे सुगंधित और औषधीय पौधे आदि शामिल हैं । भारत सरकार वैश्विक बाजार में जैविक उत्पादन के निर्यात को बढ़ावा दे रही है लेकिन निर्यात का पैमाना अभी भी बहुत सीमित है । कुल निर्यात 0.89 मिलियन टन और प्राप्ति लगभग 70.78 लाख रुपये ( 1040.95 मिलियन अमेरिकी डॉलर ) है ( 2020-21 ) ।
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भारत की आजादी के समय खाद्यान्नों का उत्पादन लगभग 50 मेट्रिक टन था तथा आबादी लगभग 30 करोड थी , ऐसी परिस्थितियों में खाद्यान्नों का भी अभाव था तथा लोगों की अन्न पूर्ति हेतु हमें विदेश से मिलने वाले अनाज पर निर्भर रहना पड़ता था । इसी कारण उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने भारत की जनता से सप्ताह में 1 दिन उपवास रखने हेतु अपील की थी ।
उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए भारत में हरित क्रांति के समय उत्पादन बढ़ाने हेतु ऐसी किस्मों का विकास किया गया जो अधिक उर्वरकों के प्रति अधिक अनुप्रिया थी । इसके कारण से फसलों में उर्वरकों का प्रयोग अत्याधिक हुआ । इसके साथ इसी क्रम में कीट एवं पादप रोग नाशी एवं खरपतवार नाशक का भी प्रयोग अत्यधिक बढ़ने लगा जिसके कारण उत्पादन में तो वृद्धि हुई परंतु इससे होने वाले दूरगामी दुष्प्रभाव से लोग अनभिज्ञ थे , इसके कारण मृदा , वातावरण , मृदा जल धीरे धीरे प्रदूषित होता गया तथा अत्यधिक उपरोक्त रसायनों के उपयोग से हानिकारक पदार्थ जो पौधे संश्लेषित नहीं कर पाते उनका संग्रहण भूमि , मानव शरीर पशुओं तथा वातावरण में होने लगा इसी के दुष्प्रभाव से आज मृदा में उर्वरक आदि का समुचित उपयोग नहीं हो पाता , जिसका प्रमुख कारण इनके उपयोग से मृदा के लाभदायक जीवो की संख्या में अत्याधिक कमी का होना जो कि मृदा में पोषक पदार्थों की अनुपलब्ध से उपलब्ध स्थिति में लाते हैं । जिसे पौधा उपयोग में लेता है मानव में खॉसी , चिड़चिड़ापन , खुजली एवं सबसे भयानक कैंसर जैसे रोग हुए । इसका प्रमुख उदाहरण बठिंडा से बीकानेर चलने वाली रेलगाड़ी का नाम लोगों ने कैंसर ट्रेन रख दिया क्योंकि बीकानेर में प्रिंस बिजय सिंह अस्पताल में कैंसर का अच्छा और सस्ता इलाज होने के कारण पंजाब , हरियाणा एवं राजस्थान के श्रीगंगानगर , हनुमानगढ़ , जिले के लोग जहां उर्वरक एवं अन्य रसायनों का अत्याधिक उपयोग होता है , वहां के लोग इलाज हेतु अधिक संख्या में बीकानेर आने लगे ।
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इन्हीं सब परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने 1990 से जैविक खेती को बढ़ावा देने हेतु कार्य प्रारंभ किया , जिसमें समुचित गति वर्ष 2000 के बाद आई क्योंकि आजादी से पूर्व की खेती में तकनीकी का काफी अभाव होने के उपरांत भी मृदा जल , वातावरण एवं मानव स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं था क्योंकि उस समय की खेती लगभग जैविक एवं सम गतिशील खेती के अनुरूप थी ।
वर्तमान समय में भारत के किसानों को जैविक खेती के विषय में एक बहुत बड़ा भ्रम है कि इससे उत्पादन में काफी कमी आ जाती है जबकि यह पूर्ण रूप से सही नहीं है , क्योंकि जैविक खेती में प्रमुख समस्या कीट , व्याधि एवं खरपतवार प्रबंधन की आती है , जिसके कई जैविक उपाय हैं तथा इस दिशा में अब काफी अनुसंधान का कार्य चल रहा है जिसका परिणाम आने वाले वर्षों में प्राप्त होगा तथा इसे किसान काफी लाभान्वित भी होंगे ।
जैविक कृषि में ध्यान योग्य कुछ प्रमुख शस्य विधियां हैं , जिसका E 5 T -1 5 ने ने ध्यान अगर किसान रखे तो जैविक खेती में भी अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है चार पांच वर्ष सफलता पूर्वक जैविक खेती करने के उपरांत उत्पादन परंपरागत खेती बराबर आने लगता है । यह प्रमुख शस्य जानकारियां निम्न है
फसल एवं किस्म का चयन
फसल एवं किस्म का चयन किसान की जमीन जलवायु पानी की उपलब्धता , आने वाले मौसम , क्षेत्र में किसी रोग व्याधि व लवणता को ध्यान में रखते हुए उस पर लगने वाली लागत एवं किसान की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर करना चाहिए ।
बुवाई का समय
उस क्षेत्र में अमुक फसल हेतु निर्धारित समय पर ही करना चाहिए उससे पहले और पश्चात बुवाई करने पर कीट , व्याधि एवं खरपतवार के प्रकोप के साथ उपज में भी कमी आती है । जैविक खेती हेतु स्थूल एवं सांद्रता खाद एवं जैविक पदार्थ भूमि में थोड़ी ज्यादा गहराई तक जोत कर मिला देना चाहिए क्योंकि कम गहराई पर मिलाया गया जैविक खाद का नुकसान गर्मी के कारण अधिक होगा तथा • भूमि के सतह में नीचे की तरफ मृदा का तापमान कम एवं नमी ज्यादा होने के कारण मृदा जीवो को बढ़ने का अनुकूल वातावरण मिलता रहेगा ।
बीज दर
पौधों की संख्या किसी भी फसल अथवा उसकी किस्म की प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या या पौधे से पौधे एवं कतार कतार की दूरी उस जोन के कृषि विभाग के अनुशंसा के अनुसार ही होना चाहिए । संख्या अधिक होने पर पौधों के बीच नमी एवं आद्रता अधिक होने के कारण खेत में रोग को बढ़ने का अधिक अनुकूल वातावरण मिलता है तथा कम होने पर खरपतवार तेजी से फैलते हैं । अतः कोशिश करनी चाहिए कि पौधों की संख्या प्रति हेक्टेयर विभाग द्वारा निर्धारित के आसपास ही हो ।
सिंचाई
अधिक गहरी सिंचाई करने पर नमी की मात्रा बढ़ने से व्याधि के बढ़ने की संभावना अधिक रहती है । विशेषकर बुवाई से पुष्पन की अवस्था तक फसल की जलमाग जड़ों की गहराई मुदा के प्रकार उस समय के तापमान को देखते हुए सिंचाई करें ।
सतही विधी द्वारा भारी मृदा हेतु कम गहरी जड़ हेतु क्यारी का आकार छोटा एवं गहरी जड़ वाली फसल हेतु क्यारी का आकार बड़ा रखा जा सकता है । फव्वारे एवं ड्रिप द्वारा सिंचाई की विधि में पौधों के प्रारंभ की अवस्था में सिस्टम को कम देर एवं दाना पकने की अवस्था में ज्यादा देर चला कर पानी को बचाया जा सकता है । क्योंकि इस अवस्था में पौधों की जड़ों की गहराई के अनुसार नमी की व्यवस्था की जा सकती है ।
अधिक एवं कम नमी होने की स्थिति में मृदा जीव अनुकूल वातावरण अनुभव नहीं कर पाते तथा उनकी वृद्धि एवं संख्या पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
खाद्य एवं जैव उर्वरक
पादप पोषण हेतु खाद की समुचित मात्रा सही जगह , सही समय पर उसको अपने स्थान से ले जाने वह खेत में मिलाने की समय सीमा अति शीघ्र होनी चाहिए नहीं तो पोषक तत्वों का क्षरण एवं वाष्पीकरण होने की प्रबल संभावना रहती है । खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करने से पहले यह ज्ञात करना आवश्यक है कि खाद पूर्ण रूप से सड़ी गली अवस्था में है या नहीं अन्यथा खरपतवार रोग कीट का प्रभाव के अलावा धन एवं श्रम की हानि होगी हर साल बराबर खाद की मात्रा न डाल कर मृदा की स्थिति के अनुसार उपयोग करना चाहिए नहीं तो मृदा में अम्लता बढ़ जाती है ।
पौध संरक्षण एवं विकास
पौध संरक्षण एव विकास हेतु विभिन्न प्रकार के जैव उत्पाद आज की स्थिति में उपलब्ध हैं जैसे बीजामृत संजीवक जीवामृत अमृतपानी पंचगव्य राइजोबियम , एजटोबैक्टर ट्राइकोडरमा , पीएसबी इत्यादि ।
इसके उपयोग में लेने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें पा जाने वाले जीव इसके उपयोग करने के समय में जीवित अवस्था में ह अन्यथा इसका प्रभाव नहीं आता जिसके कारण किसान इसे प्रभावकारी नई मानते इसका प्रमुख कारण इसके उत्पादन , रखरखाव तथा परिवहन में इस अनुकूल वातावरण ना मिल पाना होता है ।
वर्तमान भारतीय परिस्थिति में किसानों को अनुकूल ज्ञान तथा जैविक खेती हेतु काम में आने वाले सामान का अभाव तथा सही विपणन व्यवस्था नहीं हो पाने के कारण से जैविक कृषि के क्षेत्र में तीव्र विकास नहीं हो पा रहा , जबकि भारत में कुछ पिछड़े क्षेत्र एवं वर्षा आधारित मोटे अनाज वाली फसल काफी हद तक जैविक होते हैं तथा दसी फसल गौण फल एवं फसल पूर्ण रूप से जैविक होते हुए भी इसके प्रमाणीकरण के अभाव में किसानों को अपने उत्पादन का उचित मूल्य नहीं मिल पाता ।
इस स्थिति को देखते हुए स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय बीकानेर ने हर ऋतु में प्रमुख फसलों का जैविक के साथ – साथ परंपरागत खेती का प्रदर्शन लगाने के साथ जैविक प्रमाणीकरण की लैब लगाने की दिशा में प्रभावी कदम उठाया है , जिससे कृषि शिक्षा के छात्र एवं किसान लाभान्वित होंगे जो की जैविक खेती के दिशा में मील का पत्थर साबित होगा