अमरूद एक पौष्टिक गुणों से भरपूर फल है । पौधा सूखा सहन करने की शक्ति रखता है और हर प्रकार की मिट्टी व जलवायु में अच्छी प्रकार से फलता – फूलता है ।
अमरूद की किस्में
- इलाहाबादी सफेदा
- बनारसी सुरखा
- सरदार ( लखनऊ -49 )
- हिसार सफेदा
- हिसार सुरखा
अमरूद के लिए मिट्टी व जलवायु
अमरूर मध्यम वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छी प्रकार से होता है । अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी बढ़वार खूब होती है । लेकिन फल अच्छे गुणों वाले नहीं आते । यह सभी प्रकार की मिट्टी में अच्छा होता है लेकिन इसके लिए दोमट मिट्टी सबसे अच्छी होती है ।
अमरूद का पौधे तैयार करना
यद्यपि बड़े पैमाने पर अमरूद के बाग बीज वाले पौधों से तैयार किए जाते हैं परन्तु बीज से तैयार किये गये पौधों में की भिन्नता पाई जाती है व फलों के आकार व गुण भी अलग – अलग होते हैं अर्थात् ये जरूरी हो जाता है कि केवल प्योंदी पौधों को लगाकर ही बाग तैयार करें । जड़ें तैयार करने के लिए सरदार किस्म के बीज प्रयोग में लायें । बीज को फल से निकालकर गूद्दा रहित करें , धौयें व सुखायें । बीज को फल से निकालने के तुरन्त बाद बिजाई करें तो अच्छा रहता है । बिजाई जुलाई – अगस्त या मार्च में जमीन की सतह से उठी हुई क्यारियों में करें । बिजाई के 6 महीने बाद पौध की दूसरी जगह रोपाई करें । इसके 10 महीने पश्चात् इन पौधों पर इनारचिंग करें जो लगभग तीन महीने में पूर्ण हो जाती है ।
खाद प्रति पेड़
पोधो की आयु (वर्षो में) | रूडी खाद (कि. ग्रा,) | अमोनियम सल्फेट /किसान खाद (कि. ग्रा.) | सुपर फास्फेट (ग्रा.) | पोताशोयम सल्फेट (ग्राम) |
---|---|---|---|---|
1 | 15 | 0.5 | 250 | 100 |
2 | 30 | 1.0 | 500 | 200 |
3 | 45 | 1.5 | 750 | 300 |
4 | 60 | 2.0 | 1000 | 400 |
5 | 75 | 3.0 | 1250 | 500 |
- सारी रूड़ी खाद , आधी सुपर फास्फेट और सल्फेट ऑफ पोटाश फरवरी में दें तथा बाकी आधी जुलाई में दें ।
- खाद मुख्य तने से 2-3 फुट की दूरी पर डालें ।
- खादों का प्रयोग मिट्टी की जांच के आधार पर करें ।
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अमरूद में सिंचाई
सिंचाई 10-15 दिन के अन्तराल पर करते रहें । फूल आने व फल लगने के दोरान सप्ताह में एक बार सिंचाई अवश्य करें । वर्षा ऋतु की फसल न लेने के लिए सिंचाई फरवरी से मध्य – मई तक बन्द कर दें ।
बाग के बीच की फसल
बाग लगाने के 3-4 साल तक अमरूद के पोधों के बीच में पपीता लगा सकते हैं या दालें जैसे लोबिया और चना आदि बोई जा सकती है ।
फसल प्रबन्ध
एक फसल अमरूद की साल में दो फसलें प्राप्त होती हैं जुलाई – अगस्त में दूसरी नवम्बर – जनवरी में । परन्तु वर्षा ऋतु ( जुलाई – अगस्त ) में फल अच्छे गुणों वाले नहीं होते । इसलिए शरद्कालीन फसल ही लेनी चाहिए । वर्षाकालीन फसल को रोकने के लिए सिंचाई फरवरी से मध्य – मई तक बंद रखें या बसन्त में आये फूलों को हाथ से तोड़ दे या नेफथलीन एसिटिक एसिड का छिड़काव फरवरी – मार्च में करें । इसके लिए 30 ग्राम नैफथलीन एसिटिक एसिड के पाऊडर को 50 मि.ली. एल्कोहल या स्पिरिट में घोलकर 100 लीटर पानी में मिलायें ।
अमरूद में कीट नियन्त्रण
फल मक्खियां : अमरूद के फलों पर जुलाई से सितम्बर के महीनों में इन मक्खियों का प्रकोप अधिक होता है । इसके प्रौढ़ घरेलू मक्खी के बराबर होते हैं और तेज उड़ते हैं । मादा मक्खी फलों में छेद करके छिलके के नीचे अण्डे देती है । इसकी सूण्डियां ( मैगट्स ) उबले हुए चावल के समान होती है और फल के गूदे को खाती हैं । जिन फलों पर अण्डे दिये जाते हैं उन पर बहुत छोटे छिद्र ( जो प्रायः गहरे हरे रंग के होते हैं ) देखने को मिलते हैं । छोटे – छोटे जीवाणु इन छिद्रों से फलों में प्रवेश कर जाते हैं जिससे फल गलकर गिर जाते हैं । सूण्डियां 5 से 7 दिन में पूरी विकसित हो जाती हैं और प्यूपा बनने के लिए जमीन में गिर हैं । प्रौढ़ दीघायु होते हैं । यह कीट नवम्बर से मार्च महीने को छोड़ सारा वर्ष सक्रिय रहता है । प्रोढ़ अवस्था में शीतनिष्क्रिय ( नवम्बर से मार्च ) रहता है ।
नियन्त्रण एवं सावधानियां
- जहां तक सम्भव हो वर्षाकालीन फसल न लें क्योंकि तब फल मक्खी द्वारा नुकसान अधिक होता है ।
- मक्खी ग्रस्ति फलों को प्रतिदिन इकट्ठा करें व जमीन में 2 फुट गहरा दबा दें या भेड़ – बकरियों को खिला दें ।
- ग्रीष्मकाल में जमीन के खुदाई करें ताकि फल मक्खी के प्यूपा मर जायें ।
- 500 मि.ली. मैलाथियान ( सायथियान ) 50 ई.सी. 5 कि.ग्रा . गुड़ या चीनी को 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़कें । अगर प्रकोप बना रहता है तो छिड़काव 7 से 10 दिन के अन्तर पर दोहरायें ।
नोट : मैलाथियान दवाई छिड़कने के 5 दिन तक फलों को न तोड़े ।
2 . छाल खाने वाली सुण्डी अमरूर के साथ – साथ यह कीट प्रायः सभी फलदार , छायादार व अन्य पेड़ों को नुकसान पहुंचाता है । यह कीट प्रायः दिखाई नहीं देता परन्तु जहां पर टहनियां अलग होती है वहां पर इसका मल व लकड़ी का बुरादा जाले के रूप में दिखाई देते हैं । दिन के समय यह तने के अन्दर सुरंग बनाती हैं और रात को छेद से बाहर निकलकर जाले के नीचे रहकर छाल को खाती हैं एवं खुराक नली को खाकर नष्ट कर देती हैं जिससे पौधों के दूसरे भागों में पोषक तत्व नहीं पहुंच पाते हैं । बहुत तेज हवा चलने पर प्रकोपित टहनियां एवं तने टूट कर गिर जाते हैं । जिन बागों की देखभाल नहीं होती उनमें पुराने वृक्षों पर इसका आक्रमण अधिक होता है । वर्ष में एक ही पीढ़ी होती है जो जून – जुलाई से शुरू होती है ।
नियन्त्रण एवं सावधानियां
कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग , जाले हटाने के बाद ही करें ।
सितम्बर अक्तूबर : 10 मि.ली. मोनोक्रोटोफास ( नुवाक्रान ) 36 डब्लयू . एस . सी . या 10 मि.ली. मिथाइल पैराथियान ( मैटासिड ) 50 ई.सी. को 10 लीटर पानी में मिलाकर , सुराखों के चारों ओर की छाल पर लगाएं ।
फरवरी – मार्च : रूई के फोहों को दवाई के घोल में डुबोकर किसी धातु की सहातया से कीड़ों के सुराख के अन्दर डाल दें एवं सुराख को गीली मिट्टी से ढक दें । घोल बनाने के लिए 40 ग्राम कार्बेरिल ( सेविन ) 50 घु.पा. या 10 मि.ली. फैनिट्रोथियान ( फोलिथियान / सुमिथियान ) 50 ई.सी. को 10 लीटर पानी में मिला दें । 10 % मिट्टी के तेल का इमल्शन ( एक लीटर मिट्टी का तेल + 100 ग्राम साबुन + 9 लीटर पानी ) भी लगा सकते है ।
अथवा
कीड़ें के प्रत्येक सुराख में निम्नलिखित दवाइयों में से किसी एक का पानी में बनाया गया 5 मि.ली. घोल डाल दें । इसके लिए 2 मि . ली . डाईक्लोरवास ( नुवान ) 76 ई.सी. या 5 मि.ली. मिथाइल पैराथियान ( मेटासिड ) 50 ई.सी. को 10 लीटर पानी में मिलायें तथा इसके बाद सुराखों को मिट्टी से बन्द कर दें ।
नोट : 1. आसपास के सभी वृक्षों के सुराखों में भी इन दवाइयों का प्रयोग करें । 2. बाग को साफ – सुथरा रखें व निर्धारित संख्या से ज्यादा पेड़ न लगाएं ।
3 . स्केल कीट और मिलीबग किसी – किसी क्षेत्र अथवा बाग में कई तरह के नालीदार ( फल्यूटिड ) कंटीले एवं नरम स्केल कीट कभी – कभी हानि ज्यादा करते हैं ये कीट छोटे , गोल एवं पीले भूरे या हल्के भूरे रंग के होते हैं तथा सफेद मोम जैसे चूर्णी पदार्थ से ढके रहते हैं । अण्डों से तुरन्त बाद शिशु , मुलायम टहनियों और पत्तियों की निचली सतह पर चिपककर रस चूसते हैं । क्षतिग्रसत वृक्षों का विकास रूक जाता है । ये कीट मीठा रस ( मघुस्राव ) भी छोड़ते हैं जिससे काली चींटियां आकर्षित होती हैं और फफूंदी भी लग जाती है । फरवरी – मार्च से अक्तूबर नवम्बर तक यह कीट सक्रिय रहता है तथा प्रौढ़ के रूप में शीत – निष्क्रिय होता है ।
नियन्त्रण एवं सावधानियां
स्केल कीटों से क्षतिग्रस्त वृक्षों पर 1.25 लीटर डाइजिनान ( बासुडीन ) 20 ई.सी. या 500 मि.ली. मिथाइल पैराथियान ( मैटासिड ) 50 ई.सी. को 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ मार्च और सितम्बर में छिड़कें । क्षतिग्रस्त टहनियों को काटकर जला दें ।
रोग एवं लक्षण
उठका रोग ( विल्ट ) : लक्षण जड़ों के रोगग्रस्त होने के काफी समय बाद दिखाई देते हैं । रोगग्रसत पौधों में पत्तियां बहुत कम हो जाती हैं तथा कई शाखाओं तो पथविहीन हो जाती है । पहले पत्तियां पीली पड़ती है और बाद में पौधा सूखने लगता है ।
रोकथाम एवं नियन्त्रण
पौधे उन्हीं खेतों में लगाये जहां पानी के निकास की अच्छी व्यवस्था हो । बहुत अधिक भारी मिट्टी में पोधे न लगायें । वर्षा या सिंचाई में पानी को तने के चारों ओर खड़ा न होने दें । रोगग्रस्त पौधों को जड़ सहित उखाड़कर नष्ट कर दें । गड्ढे को फारमैलिन के द्वारा घूमित करने के बाद ही दोबारा पौधा लगायें । जहां इस रोग की समस्या हो वहां पर सरदार ( लखनऊ -49 ) किस्म लगायें । इस किस्म में यह रोग कम मिलता है । हर पोधें के थाले में 15 ग्राम बाविस्टिन मार्च , जून व सितम्बर में डालकर पानी लगा दें तथा मार्च व सितम्बर में पौधों पर 0.3 प्रतिशत जिंक सल्फेट का छिड़काव करें । जहां उक्ठा की समस्या हो वहां पर यह उपचार लाभप्रद है ।
श्यामवर्ण , फल – गलन या टहनी मार रोग
फलों में संक्रमण होने के फलस्वरूप बनते हुए फल छोटे , कड़े और काले रंग के होते हैं या कई बार लक्षण बहुत देर से उत्पन्न होते हैं । फल पकने वाली अवस्था में फलों के ऊपर गोलाकार एक या अनेक धब्बे ओर बाद में बीच में धंसे हुए स्थान तथा नारंगी रंग के फफूंद उत्पन्न हो जाते हैं । डालियों पर यदि संक्रमण हो जाये तो डालियां या शाखायें पीछे से सूखने लगती हैं ।
रोकथाम एवं नियन्त्रण
रोगग्रस्त डालियों को काटकर 0.3 प्रतिशत कापर आक्सीक्लोराइड के घोल का छिड़काव करें और 15 दिन की अवधि पर फल लगने के बाद 2-3 छिड़काव करें ।
अल्टरनेरिया लीफ स्पाट पत्तियों के ऊपर भूरे रंग के धब्बे बनते हैं । रोगग्रस्त पत्तियां झुलसी हुई दिखाई पड़ती है और बाद में गिर जाती है । यह रोग अल्टरनेरिया नामक फफूंद द्वारा होता है ।
रोकथाम एवं नियन्त्रण
रोकथाम के लिए कापर – आक्सीकलोराइड या ब्लाइटाक्स 50 नामक दवा के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव 2 सप्ताह के अन्तर पर 2-3 बार करें ।